श्री साईं चालीस

|| श्री साईं चालीसा ||
 
 || चौपाई ||
 

 पहले साई के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं |
 कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं ||
 कौन है माता, पिता कौन है, ये न किसी ने भी जाना |
 कहां जन्म साई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना ||
 
 कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं |
 कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं ||
 कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानंद हैं साई |
 कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साई ||
 
 शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते |
 कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साई की करते ||
 कुछ भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान |
 ब़ड़े दयालु दीनबंधु, कितनों को दिया जीवन दान ||
 
 कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात |
 किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात ||
 आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर |
 आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर ||
 
 कई दिनों तक भटकता, भिक्षा माँग उसने दर-दर |
 और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर ||
 जैसे-जैसे अमर उमर ब़ढ़ी, ब़ढ़ती ही वैसे गई शान |
 घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान ||
 
 दिग् दिगंत में लगा गूंजने, फिर तो साई जी का नाम |
 दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम ||
 बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं नि़धन |
 दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन ||
 
 कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान |
 एवं अस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान ||
 स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल |
 अन्तःकरण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल ||
 
 भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत ब़ड़ा धनवान |
 माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान ||
 लगा मनाने साईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो |
 झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो ||
 
 कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ घर में मेरे |
 इसलिए आया हूं बाबा, होकर शरणागत तेरे ||
 कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया |
 आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया ||
 
 दे-दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर |
 और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर ||
 अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश |
 तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीश ||
 
 अल्ला भला करेगा तेरा, पुत्र जन्म हो तेरे घर |
 कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर ||
 अब तक नहीं किसी ने पाया, साई की कृपा का पार |
 पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार ||
 
 तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार |
 सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार ||
 मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास |
 साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस ||
 
 मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी |
 तन पर कप़ड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी ||
 सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था |
 दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था ||
 
 धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था |
 बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था ||
 ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साई का था |
 जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था ||
 
 बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार |
 साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार ||
 पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति |
 धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति ||
 
 जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया |
 संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया ||
 मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से |
 प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साई की आभा से ||
 
 बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में |
 इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में ||
 साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ |
 लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ ||
 
 काशीराम बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था |
 मैं साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था ||
 सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में |
 झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में ||
 
 स्तब़्ध निशा थी, थे सोय, रजनी आंचल में चाँद सितारे |
 नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे ||
 वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी |
 विचित्र ब़ड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी ||
 
 घेर राह में ख़ड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी |
 मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि प़ड़ी सुनाई ||
 लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो |
 आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो ||
 
 बहुत देर तक प़ड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में |
 जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में ||
 अनजाने ही उसके मुंह से, निकल प़ड़ा था साई |
 जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को प़ड़ी सुनाई ||
 
 क्षुब़्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो |
 लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो ||
 उन्मादी से इ़धर-उ़धर तब, बाबा लेगे भटकने |
 सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने ||
 
 और ध़धकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला |
 हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला ||
 समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त प़ड़ा संकट में |
 क्षुभित ख़ड़े थे सभी वहाँ, पर प़ड़े हुए विस्मय में ||
 
 उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है |
 उसकी ही पी़ड़ा से पीडित, उनकी अन्तःस्थल है ||
 इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई |
 लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई ||
 
 लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गा़ड़ी एक वहाँ आई |
 सन्मुख अपने देख भक्त को, साई की आंखें भर आई ||
 शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल |
 आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल ||
 
 आज दया की मू स्वयं था, बना हुआ उपचारी |
 और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी ||
 आज भिक्त की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी |
 उसके ही दर्शन की खातिर थे, उम़ड़े नगर-निवासी ||
 
 जब भी और जहां भी कोई, भक्त प़ड़े संकट में |
 उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में ||
 युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी |
 आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्र्तयामी ||
 
 भेदभाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई |
 जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई ||
 भेद-भाव मंदिर-मिस्जद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला |
 राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला ||
 
 घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मिस्जद का कोना-कोना |
 मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना ||
 चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी |
 और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी ||
 
 सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया |
 जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया ||
 ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे |
 पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे ||
 
 साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई |
 जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई ||
 तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो |
 अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो ||
 
 जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा |
 और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा ||
 तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी |
 तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी ||
 
 जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को |
 एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को ||
 धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया |
 दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया ||
 
 गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े |
 साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े ||
 इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान |
 दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान ||
 
 एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया |
 भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया ||
 जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण |
 कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन ||
 
 औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शिक्त |
 इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति ||
 अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से |
 तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से ||
 
 लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी |
 यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी ||
 जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए |
 पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए ||
 
 औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा |
 मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा ||
 दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो |
 अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो ||
 
 हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी |
 प्रमुदित वह भी मन- ही-मन था, लख लोगों की नादानी ||
 खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक |
 सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक ||
 
 हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ |
 या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ ||
 मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को |
 कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को ||
 
 पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को |
 महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को ||
 तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को |
 काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को ||
 
 पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर |
 सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर ||
 सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में |
 अंश ईश का साई बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में ||
 
 स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर |
 बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर ||
 वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल |
 उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विहल ||
 
 जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है |
 उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है ||
 पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के |
 दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के ||
 
 ऐसे ही अवतारी साई, मृत्युलोक में आकर |
 समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ||
 नाम द्वारका मिस्जद का, रखा शिरडी में साई ने |
 दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने ||
 
 सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई |
 पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई ||
 सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान |
 सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान ||
 
 स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे |
 बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे ||
 कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे |
 प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे ||
 
 रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके |
 बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे ||
 ऐसी समुधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे |
 अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे ||
 
 सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे |
 दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे ||
 जाने क्या अद्भुत शिक्त, उस विभूति में होती थी |
 जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी ||
 
 धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए |
 धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए ||
 काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता |
 वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता ||
 
 गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर |
 मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर ||